DR. MANDHATA RAI

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परिचय

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गाजीपुर, उत्तर प्रदेश, India

Thursday, October 4, 2012

राही मासूम रजा कृतित्व एवं मूल्यांकन





लेखक : डॉ. मान्धाता राय डॉ. हितेंद्र कुमार मिश्रा
प्रकाशक: विजय प्रकाशन मंदिर, वाराणसी संस्करण : 2011


इस किताब में संपादक- डॉ. मान्धाता राय और डॉ. हितेंद्र ठाकुर मिश्र ने डॉ. राही मासूम रजा के बेजोड़ कृतित्व और अमूल्य मूल्यांकन से परिचित कराया है. जरिया बनाया है डॉ. राही के आत्मकथ्य और तकरीबन तीन दर्जन लेखकों  की कलम को, जिन्होंने राही को वो कलमकार निरुपित किया है, हिंदू-मुस्लिम दोनों को हिंदुस्तानी बनने की प्रेरणा देते हैं और जिनकी भाषा भी हिंदी उर्दू न होकर हिंदुस्तानी है. अपनी प्रसिद्ध कृति "आधा गांव' के बारे में वह कहते हैं- "यह उपन्यास लिखने के बाद सबसे अहम बात मैंने यह जानी कि यहां का मुसलमान कराची गया, लाहौर गया, ढाका गया, मगर पाकिस्तान नहीं गया, हमें शहर और देश में फर्क करना चाहिए..' किताब के 45 लेखों में से एक के अनुसार राही की 251 सफह वाली नज्म 1857, जो गदर पर लिखी सबसे लंबी नज्म है, डॉ. इकबाल, जोश मलीहाबादी, अली सरदार जाफरी वगैरह का समकक्ष शायर बनाती है, मगर उसे नजर अंदाज कर दिया गया है.
"महाभारत' की स्क्रिप्ट लिखकर और भी अमर हो जाने वाले राही की अमर कृति (नज्म 1857) की चार लाइने पेश हैं- "कोई हवा से ये कह दे, वो ये चिराग बुझाये; कि उस सड़क पर अंधेरा ही था तो अच्छा था. हर एख दरख्त में फंदा, हर एख शाख पे लाश; मैं उस सड़कें पे अकेला ही था तो अच्छा था...'
सही मूलत: शायर थे. उनकी कथनी और करनी में, जीवन और लेखन में फर्क नहीं था. उनके चाचा वजीर हसन आब्दी से यह फन उन्हें विरासत में मिला. सन 1927 को गाजीपुर के गंगौली गांव में जन्म और सन 1992 में जहां को अलविदा कहने वाले राही ने आधा गांव, टोपी शुकला कटरा बी आरजू वगैरह आठ प्रसिद्ध उपन्यास लिखे. राही ने आधा गांव (विभाजन पर आधारित) में सेक्यूलर सोच की पैरवी थी, तो टोपी शुक्ला (धार्मिक वैमनस्यता पर) में विश्वविद्यालयों में जारी राजनीति  को फोकस किया, तो कटरा बी आरजू (आपातकाल पर) में भयावहता का चित्रण पूरी मानवीय संवेदना के साथ किया.
इस किताब से ही पता चलता है कि 300 फिल्मों की यह क्या और संवाद लिखने वाले राही शुरूआत में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिकायें-जासूसी दुनिया, रूमानी दुनिया वगैरह में छद्म नामों से भी लिखते थे.
किताब के दीगर लेखों के अनुसार राही प्रेमचंद की तरह अजीम उपन्यासकार थे, जिन्होंने इंकलाब की आवाज को और ज्यादा कुव्वत से बुलंद किया. अपनी साफगोई व बेबाक  टिप्पणी करने की आदत ने उन्हें आंखें भी किरकिरी भी बनाया.
राही के "आधा गांव' में बे शुमार गालियां है, जबकि "टोपी शुकला' में एक भी गाली नहीं है. बकौल राही "टोपी' में एक भी गाली न हो, पर महसूस उपन्यास एक गंदी गाली हैं, जो में डंके की चोंट बक रहा हूं यह उपन्यास जीवन की तरह अश्लील है.
किताब के एक और लेखक अनुसार राही के उपन्यास दिल एक सादा कागज है मैं बड़े पैमाने पर देह विमर्श के दर्शन होते हैं. फिल्म की तरह कई हॉट सीन सामने नमूदार होते हैं. बेशक यह भी राही के कलम का कमाल है.
दादी नानी की लोकथाओं वाली "तिलस्मे होशरूबा' पर डॉक्ट्रेट हासिल करने वाले डॉ. राही को एक बेवा के साथ प्रेम विवाह करने चरित्रहीन कह अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया था, जहां वो उर्दू विभाग में प्राध्यापक थे. लिहाजा राही दिल्ली आये, मगर आखिरकार उन्हें फिल्मलेखन के लिए मुंबई आना पड़ा. "महाभारत' के प्रदर्शन के बाद उनकी अभूतपूर्व प्रसिद्धि के चलते अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी उन्हें सम्मानित करना पड़ा.
राही ने लाख फिल्मों के जरिए खूब कमाया, पर उनकी फिक्र और सोच साहित्यकारों के लिए सदा रही. उन्होंने गंगा में लिखा है- "एक राज की बात सुनिये, भारत में साहित्यकार मरने के बाद पुजाता है, पर जिंदगी में साहित्य दो जून की से ही, घर का किराया, बिजली, धोबी और डॉक्टर काबिल वगैरह नहीं दे सकता, इसलिए यहां उसे कोई और काम करना पड़ता है. फिल्मों के लिए काम करने वाले राही ने फिल्म मीडिया पर भी दो टूक लिथा है-"हिंदुस्तान एक जाहिल मुल्क है और जाहिलों के लिए फिल्म से ज्यादा पॉवरफुल कोई माध्यम हो ही नहीं सकता.
"मैं मंगलवार को मीट नहीं खाता' या "इस्लाम खतरे में है' जैसी बातों वालों से नफरत करने और देशकाल समाज की विसंगतियों विकृतियों को उजागर करने वाले सही का कृतित्व राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत है. वह लिखते हैं.
"कैसी विडम्बना है कि हिंदुस्तान एक राष्ट्र है और उसी में महान राष्ट्र और सौ+ राष्ट्र हैं और और भी अलग-अलग प्रदेश (पर+देश) यानी दूसरे देश है. मुंबई बाल ठाकरे भी है तो श्री नगर फारूक अब्दुल्लाह  का... मुझे सारे जहां से अच्छा जो हिंदुस्तान है, उसका कोई पोस्टल एड्रेस नहीं बताता. उन्होंने यह भी लिखा-"धार्मिक कट्टरता जो स्वतंत्रता के रास्ते का रोड़ा थी, जैसे आज प्रगति के रास्ते का रोड़ा है... वह कहीं बाल ठाकरे को नेता बना देती हैं, कहीं मौलाना बुखारी को. इनके हाथों से धर्म छीन लाये तो इन फुकनों की हवा निकाल जाएगी' (बकलम खुद अभिनव कदम. 12) राही के अनुसार (हिंदुस्तान का हर नागरिक हिंदू है, चाहे वह सिख हो, ईसाई हो या मुसलमान. कौमें देशों से बनती हैं धर्मों से नहीं वह इस्लाम की व्याख्या यूं करते हैं- "इस्लाम नाम है शांति का, गुलामों की आजादी का सच बोलने का, बदन और आत्मा साफ रखने का, पड़ोसियों के हक महफूज रखने का.. इस्लाम किसी बादशाह की बनवाई मस्जिद में अजान देने का नाम नहीं है.'
उर्दू में हिंदी में आये राही लिखते हैं- "भाषा का वह रूप जिसे उर्दू कहते हैं, मेरा ओढ़ना-बिछौना नहीं है, बल्कि मेरे अस्तित्व का एक अंग है. उसके बिना मैं अधूरा रह जाऊंगा. मैं हिंदी लिख पढ़ लेता हूं, लेकिन मैं हिंदी में ख्वाब नहीं देख सकता.
भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि के अपनी कृति में पूरी संजीदगी से उकेरने वाले राही कबीर, रसखान गालिब और प्रेमचंद्र की परम्परा की आगे बढ़ाकर गये हैं, जिसे नयी थी दी कि साहित्यकार प्रेरणा पाकर देश को एकता के सूत्र में बांधकर तरक्की की राह पर चलने को प्रेरित कर सकते हैं. हिंदुस्तानियत और औ़र इंसानियत के मासूम राही का यही पैगाम है. उनका संपूर्ण जीवन और साहित्य भारतीय धर्म निरपेक्षता के समर्पित है.
और यह किताब भी, जो राही मासूम रजा कृतित्व और मूल्यांकन को प्रस्तुत करने के कूजे में समन्दर समोने जैसी है.  कुल जमा राही, उनके उनके कृतित्व और मूल्य से पूरी तरह तआरूफ कराता है यह मूल्यांकन.
   

 नून जाफरी

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