DR. MANDHATA RAI

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परिचय

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गाजीपुर, उत्तर प्रदेश, India

Sunday, December 20, 2009




सूरसागर और प्राकृत-अपभ्रंश का कृष्ण साहित्य


        इस पुस्तक में सूरदास के पहले की संस्कृतेत्तर कृष्ण काव्य परंपरा को पुनर्गठित और विवेचित किया गया है । पूर्व के अध्येताओं द्वारा हिन्दी कृष्ण साहित्य का सम्बन्ध संस्कृत के उपजीव्य ग्रंथों विशेषतः श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण और ब्रह्म्वैवर्त की कथाओं के साथ जोड़ा जाता रहा है । किन्तु कृष्ण की लोक रंजक क्रीड़ाओं तथा लोक संस्कृति की पृष्ठभूमि पर अध्येता मौन रहे हैं। सूरसागर की इन लीलाओं की पॄष्ठभूमि के रूप में उसके ठीक पहले की प्राकृत-अपभ्रंश परंपरा का विस्तृत अध्ययन करके यथा संभव दोनों के सम-विषम तत्त्वों की छानबीन की गयी है । यह अध्ययन तुलनात्मक और समानान्तर दोनों है । पुस्तक के सम्बन्ध में डॉ शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है ’हिन्दी में पहली बार संस्कृत और हिन्दी के बीच की प्राकृत-अपभ्रंश वाली श्रृंखला को पुनर्नियोजित करने का प्रयत्न इस पुस्तक में किया गया है जो लेखक की मौलिक देन है ।’
             प्राकृत-अपभ्रंश के कृष्ण साहित्य की कथायें प्रायः जैन प्रभावापन्न हैं । कथाओं में कुछ परिवर्तन के बावजूद उनमें कृष्ण की लोकलीला, लोकसंस्कृति और लोकतत्त्वों को निःसंकोच स्वीकार किया गया है । सूरदास ने कृष्ण कथा में संस्कृत में प्रचलित कथा के रूप में अनेक परिवर्तन किये हैं । उन्हें प्रस्तुत करने का लोकात्मक शिल्प उनका अपना है । इसकी पृष्ठ्भूमि प्राकृत अपभ्रंश के कृष्ण कथा काव्यों - गाथा सप्तशति, बज्जालग्ग, कण्ठ चरित, बसुदेव हिन्डी, रिट्ठणेमिचरित, महापुराण, हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण और प्राकृत पैंगलम् में मिलती है । इस पुस्तक में प्रेम, श्रृंगार, सौंदर्य, कृष्ण के व्यक्तित्व, लोक जीवन संबंधी लीलाओं से सम्बन्धित अंतर और साम्य को सोदाहरण प्रस्तुत कर अध्ययन को प्रामाणिक बनाया गया है ।
        सूरसागर के कथाभिप्राय और अपभ्रंश कथानक रुढियों, काव्यरूपों, भाषा, मुहावरे और लोकोक्तियों की दृष्टि से यह प्रभाव अधिक महत्वपूर्ण है । यही नहीं, सूरसागर की लोकसंस्कृति पर प्राकृत-अपभ्रंश कृष्ण काव्य की लोक संस्कृति जैसे पर्व, त्योहार, मान्यताओं, लोकाचार, मनोविनोद, खेल-कूद, व्यवसाय संबंधी वर्णनों का प्रभाव कुच अधिक ही दीखता है जिस पर सोदाहरण प्रकाश इस अध्ययन से पङा है । इस संबंध में यशस्वी आलोचक डॉ विजयेन्द्र स्नातक का कहना है ’लेखक ने दो विभिन्न भाषाओं के काव्यों में संग्रथित कृष्ण के स्वरूप के अनुसंधान सम्बन्धी कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य को समीचीन शैली में सम्पन्न किया है । पुस्तक की भाषा प्रांजल एवं प्रवाह्पूर्ण है ।’

आकार डिमाई                           पृष्ट संख्या-296

प्रकाशक- श्री प्रकाशन,16 जौहरी टोला, इलाहाबाद
         ब्रांच- के 61/29 बुलानाला, वाराणासी
प्रकाशन वर्ष-1984,  मूल्य- 50/


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